खानकाह के अब्दुल रशीद बिना किसी ब्रान्ड के बनाते है ऐसा साबुन जो लोगों को खुब पसन्द आता है

रिवायती साबुन बनाने का तरीक़ा जानने वाले गुलाम रसूल आखरी शख्स थे उनके इलावा किसी को साबुन बनाने नहीं आता था। उनकी बढ़ती उम्र और नासज तबीयत के वजह से वो इस बात से हमेशा परेशान रहते थे कि उनके बाद इस काम को कौन करेगा। ऐसे में उनके बगल में साइकल की दुकान करने वाले अब्दुल रशीद जो उनके बहुत अच्छे दोस्त बन गये थे उन्हें गुलाम रसूल साहब ने साबुन बनाने का खुफिया नुस्खा बताया और फिर वो अपनी विरासत अब्दुल रशीद को देकर इस दुनिया को अलविदा कर गये। उनके इंतकाल के बाद से सालों से चली आ रही साबुन बनाने की परंपरा को अब्दुल रशीद ने आगे बढ़ाया है।

खानकाह के अब्दुल रशीद बिना किसी ब्रान्ड के बनाते है ऐसा साबुन जो लोगों को खुब पसन्द आता है
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श्रीनगर : जहां एक ओर साबुन बनाने वाली तमाम ब्रांडेन्ड कम्पनियों में बेहतर बनने की दौड़ है, तो वहीं श्रीनगर खानकाह के अब्दुल रशीद बिना किसी ब्रान्ड के साबुन बनाते है जिसका इस्तेमाल करने वाले लोग केवल उन्हीं से साबुन खरीदना पसन्द करते है। खानकाह का बाज़ार साबुन के लिए पहले से ही मशहुर था लेकिन कश्मीर की पारंपरिक साबुन बनाने की विरासत को ज़िन्दा रखने वाले अब्दुल रशीद आखरी शख्स है। अब्दुल रशीद के बारे में जानिए हमारी इस खास रिपोर्ट में । 

 

श्रीनगर का खानकाह बाजार अपनी रवायत के लिए खासा मशहुर है। इस बाज़ार में कश्मीरी साबुन बनाने का पारंपरिक काम गुलाम रसूल साहब करते आ रहे थे ।  कश्मीरी साबुन अपनी उम्दा गुणवत्ता के वजह से पूरे कश्मीर में इस्तेमाल किया जाता था और दूर दराज के इलाकों से लोग खानकाह के बाज़ार में साबुन ख़रीदने जरूर आते थे। पारंपरिक साबुन बनाने का तरीक़ा जानने वाले गुलाम रसूल आखरी शख्स थे उनके इलावा किसी को साबुन बनाने नहीं आता था। उनकी बढ़ती उम्र और नासज़ तबीयत के वजह से वो इस बात से हमेशा परेशान रहते थे कि उनके बाद इस काम को कौन करेगा। ऐसे में उनके बगल में साइकल की दुकान करने वाले अब्दुल रशीद जो उनके बहुत अच्छे दोस्त बन गये थे उन्हें गुलाम रसूल साहब ने साबुन बनाने का खुफिया नुस्खा बताया और फिर वो अपनी विरासत अब्दुल रशीद को देकर इस दुनिया को अलविदा कर गये। उनके इंतकाल के बाद से सालों से चली आ रही साबुन बनाने की परंपरा को अब्दुल रशीद ने आगे बढ़ाया है, आज वो अपने खुफिया नुस्खे को किसी को भी नहीं बताते है लेकिन आज भी लोग हर तरह के कामों के लिए उनसे साबुन खरीदने आते है। अब्दुल रशीद की उम्र  60 साल है और वो बिना किसी  इश्तिहार के अपना व्यापार करते है उन्हें किसी भी तरह की ब्रांडिंग की ज़रूरत नहीं है, उनका नाम पूरे कश्मीर में मशहुर है। वो अकेले बचे है इस पारंपरिक काम को करने वाले वो अपना अनुभव बयान करते हुये बताते है कि हाजी गुलाम के ठीक बगल में उनकी दुकान थी और वो अक्सर उनके साथ हर विषय पर बात किया करते थे। 20 साल हम लोग एक दूसरे का दर्द बांटते आये। हाजी साहब के कोई औलाद नहीं थी जिसका उन्हें दुख था और वो उनको अपने बेटे के मानिन्द मानते थे। 1990 में उन्होंने अपने इंतकाल से पहले मुझे साबुन बनाने का खुफिया नुस्खा बताया और कहा कि इस विरासत को अब तुम आगे बढ़ाओ। फिर राशिद साइकल मैकेनिक से साबुन बनाने वाले बन गये । 

 

अब्दुल राशीद को हाजी साहब से खुफिया नुस्खा तो विरासत में मिल गया, लेकिन उन्हें इसे समझने में पूरे दो साल का वक्त लगा । जिसके बाद वो साबुन बनाना सीख गये, इससे उनके घर की माली हालत ठीक हो गई। हाजी साहब की 60 साल से चली आ रही साबुन की दुकान फिर से चल पड़ी । राशिद बताते है कि पहले एक पैसे में 250 ग्राम साबुन खरीदा जा सकता था। ये तब था जब आस पास के लोग केवल हमारा बनाया साबुन ही इस्तेमाल करते थे। खानकाह का बाजार चार चीजों के लिए मशहुर था। कोज़गर अर्क, कश्मीरी साबुन, देसी मक्खन और हकीम गुलाम रसूल के लिए, जिसमें साबुन के काम को छोड़कर अब ये सारें काम बंद हो चुके है। साबुन बनाने की परंपरा को आगे बढ़ाते हुये वो अपने बेटे और पोते को इस नुस्खे के बारें में बता रहे है।  

 

अब्दूल राशीद बताते है कि उनका साबुन इतना मशहुर इसलिए है क्योंकि उनके बनाये साबुन में किसी भी तरह की कोई मिलावट नहीं होती है। न ही किसी भी तरह से जानवरों की चमड़ी का काई इस्तेमाल किया जाता है। उनका साबुन खुशबुदार तेल से बनता है। उनके साबुन के सबसे ज्यादा खरीददार नमदा मैट बनाने वाले होते है । नमदा भी कश्मीर की पारंपरिक चटाई बनाने की जीवंत कला है, लेकिन कहीं न कहीं इस कला का भी लोप होता जा रहा था जिसे बचाने के लिए हेन्डीक्राफ्ट विभाग ने बड़े स्तर पर प्रयास किया है। बिना इस पारंपरिक साबुन के नमदा मैट नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए नमदा पर काम करने वाले कारीगर  उनकी ही दुकान से साबुन खरीदते है।  

 

 

कश्मीर में अब्दुल राशिद जैसे अनगिनत लोग है जो कश्मीर की छोटी से छोटी परंपराओं को आज भी जीवंत रखे हुये है,बस ऐसे लोगों को मौका मिलना चाहिए..दो साल के अपने संघर्ष में अगर अब्दुल राशिद ने अपने उस्ताद से सीखे नुस्खे को पूरी बारीकी से अध्ययन किया तब जाकर उन्हें सफलता मिली। खत्म हो रही परंपराओं को बचाने वालो में अब्दुल रशीद भी एक नाम है जो अपनी मेहनत से आज साबुन का व्यापार कर रहे है। 

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